जहा मंजिले हो राह हो
पर कोई हमसफ़र न हो
मौला मेरे इतना तो तनहा
...
मेरा कोई सफ़र ना हो
हर दर पे जो करना पडे
सजदा मुझे मजबूर हो
अल्लाह फिर मेरे जिस्म पे
बेहतर है कोई सर न हो
पाकीजगी से बंदगी से
उनकी रहमत मिलती है
उस पाक दिल बिन क्या दुआ
जो दुआ मे कोई असर न हो
जो भी फूकते हो बस्तिया
अपना रसूख दिखाने को
इतना तो कर मौला मेरे
उनका कभी कोई घर न हो
वो रात तो कभी आये ना
तेरे बंदगी की राह मे
चाहे रात लम्बी हो , पर न हो
की इसके बाद सहर ना हो
स्वरचित
जीतेन्द्र मणि
सहायक आयुक्त पुलिस
पी सी आर
पुलिस मुख्यालय
पर कोई हमसफ़र न हो
मौला मेरे इतना तो तनहा
...
मेरा कोई सफ़र ना हो
हर दर पे जो करना पडे
सजदा मुझे मजबूर हो
अल्लाह फिर मेरे जिस्म पे
बेहतर है कोई सर न हो
पाकीजगी से बंदगी से
उनकी रहमत मिलती है
उस पाक दिल बिन क्या दुआ
जो दुआ मे कोई असर न हो
जो भी फूकते हो बस्तिया
अपना रसूख दिखाने को
इतना तो कर मौला मेरे
उनका कभी कोई घर न हो
वो रात तो कभी आये ना
तेरे बंदगी की राह मे
चाहे रात लम्बी हो , पर न हो
की इसके बाद सहर ना हो
स्वरचित
जीतेन्द्र मणि
सहायक आयुक्त पुलिस
पी सी आर
पुलिस मुख्यालय
rawaani kii zaruurat hai kaho dariya ki lahron se
ReplyDeletepalat kar jab idhar aayein toh ghughru baandh kar aayein...