सदा को अपने तु ,आँचल मे छुपा माँ मेरी
ये कविता मैने
१५ अप्रैल २०१३ को गाँधी नगर मे हादसे का
शिकार हुई गुडिया एवम उन सभी गुडियाओं के लिए लिखी है जो शायद खबरों मे आ नहीं
पाती शायद उनकी पीड़ा का किसी को अहसास नहीं हो पाता और जो देश के दूरस्थ प्रदेशों
से होने के कारण वो गंभीरता नहीं पाती जो
राजधानी के घटना मे उन्हे मिल पाता है उनके
मनो भावो ,उसकी पीड़ा और सवालों को अनुभूत करके
बड़े मर्माहत हो कर लिखी है ,वास्तव
मे ये कृत्य जो उस पापी ने किया है वो मानव के मानवीय पराभव बर्बरता का चरम
है ,जिसे शब्दों मे व्यक्त नहीं कर सकते .ये कविता उनको समर्पित है जिस से लोग
उनके पीड़ा ,दर्द ,भोलेपन मे दरिंदगी का शिकार होने की नियति को समझ सके
मैने था क्या किया
गुनाह बता माँ मेरी
कितनी प्यारी कितनी
भोली थी मैं गुडिया तेरी
ना जाने भूल क्या
हुआ नहीं समझ आता
मेरा उस आदमी से
क्या भला लेना देना
जाने क्या उसने मेरे
साथ किया माँ मेरी
मैने था क्या किया
गुनाह बता माँ मेरी
तुने पाला मुझे
पलकों मे जैसे आँखें होँ
तुने चाहा मुझे जीवन
की जैसे सांसे हो
मगर वो लूट ही गया
वो खुशी माँ मेरी
मैने था क्या किया
गुनाह बता माँ मेरी
मैने उसको कहा ये कर
रहे हो क्या चाचा
मैं हूँ बिटिया की
तरह तेरी ओ मेरे चाचा
मगर वो बन गया वहशी
क्यों बता माँ मेरी
मैने था क्या किया
गुनाह बता माँ मेरी
वो मेरे जिस्म मेरी
रूह को मसल के गया
मेरे हर खाब
तमन्नाओं को कुचल के गया
किस क़दर कर गया
वीरान मुझे ओ माँ मेरी
मैने था क्या किया
गुनाह बता माँ मेरी
अब मैं क्या फिर कभी
हस खिलखिला भी पाऊँगी
क्या कभी अपने हसी
सपने सजा पाऊँगी
क्या घाव ज़हन का
भरेगा माँ मेरी
मैने था क्या किया
गुनाह बता माँ मेरी
अजीब नज़रों से सब
देखते है क्यों मुझको
बड़ी बेचारगी से
देखते है क्यों मुझको
सदा को अपने तु
,आँचल मे छुपा माँ मेरी
जितेन्द्र
मणि