Monday, 16 July 2012

ये सफ़र अजीब सा है मणि

इसे जिन्दगी कहते है सब

गुमसुम से इसके बहाव मे
...
चुपचाप से बहते है सब

कभी छाँव है कभी धूप है

क्या जिन्दगी तेरा रूप है

अपने पराये है सब यहाँ

पैर अजनबी होते है सब

कही दर्द का दरिया बहे

कही झरना खुशियों का गिर रहा

अपने करम से नसीब से

ये जायका चखते है सब

ये अशक भी तो अजीब है

गम हो ख़ुशी बहते है ये

बस मन के भाव का भेद है

आंसू इसे कहते है सब

कोई खाना खा कर मर गया

कोई खाने बिन ही गुज़र गया

कोई रख नहीं पाता है धन

कोई सिक्को के लिए मर गया

इतना अजीब ये सिलसिला

इसे जिन्दगी कहते है सब

स्वरचित

जीतेन्द्र मणि

सहायक आयुक्त पुलिस

पी सी आर

पुलिस मुख्यालय

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