वक्त के
ऐसे दौर से गुज़र गया हूँ मैं
वक्त है एक कसौटी
जहा पे घिस घिस के
बना सोना खरा इतना
निखर गया हूँ मैं
हर एक मोती तलाशा
बहुत ही चुन चुन के
समेटा जिन्दगी पर खुद बिखर गया हूँ मैं
गम ओ खुशी का बहुत फर्क
न रहा अब तो
वक्त के ऐसे दौर से
गुज़र गया हूँ मैं
प्यार अपनों का
परायों का भी है मिला इतना
हुआ मगरूर सा कुछ
यूँ बिगड़ गया हूँ मैं
वक्त हालात से बनती
है ये रुबाई गज़ल
ऐसे हालात में अब तो
उतर गया हूँ मैं
रहा महरूम भले साकी
से पैमाने से
अपनी नज्मो के नशे
से ही भर गया हूँ मैं
जितेन्द्र
मणि
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