हुनर
अरे गुलाब ये हुनर
मुझे सिखायेगा
खार के बीच मे किस्त
तु मुस्कुराएगा
बीच काँटों के भी हो
कर के तु पैदा गुलाब
इतना नाजुक सा खड़ा
कैसे खिल्खिलायेगा
कड़ी चुभन के सेज पर
भी लेट कर गुलाब
फिजा मे खुशबु का
झोंका ही तु फैलाएगा
लाख टुकड़े भी करे
लोग तेरी टहनी के
जहाँ भी पायेगा मौका
वही उग जायेगा
भूल के रंज ओ गम
पंखुर नए पत्ती ले कर
नए जज्बे से कैसे
फिर से पनप जाएगा
जितेन्द्र
मणि
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