यही बदनामिया अब बन
गयी शोहरत है मेरी
गज़ल इसे
नहीं कहना ये इबादत है मेरी
अपने दिल
के सुरों सो ढाल कर के लफ्जो मे
अक्स कागज़
के उतारूँ यही आदत है मेरी
हँसते हँसते
यूँ ही लुट जाना आह भरे बिना
खुद को
मिटाना प्यार मे ही तो मुहब्बत है मेरी
अपने
अलफ़ाज़ से सहलाता सब के जख्मों को
बड़ी
शिद्दत से जो भी ढूंढते है अपनों को
उनको देना
सुकून बन गयी फितरत है मेरी
प्यार मे
हो गये बदनाम अपने मंजिल के
लुट गये
हम तो पास आ के अपने साहिल के
यही
बदनामिया अब बन गयी शोहरत है मेरी
जितेन्द्र मणि
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