Monday, 27 August 2012


जिंदगी फिर तो देख चल रहा हूँ मैं

   

जिन्दगी की हकीकत से बेखबर रहा हूँ मैं

मंजिल की आरज़ू में दर बदर रहा हूँ मैं

जाने किस मोड़ पर ये मुझ पे मेहरबान हो

चल रहे है जब तलक साँसों का कारवां हो

न हुई तु मेरी पर तेरा हमसफ़र रह हूँ मैं

अजीब है ये खेल हाथ के लकीरों का

मगर बिगाड़ ये पाएंगे क्या फकीरों का

आइने की तरह से टूट के बिखर रहा हूँ मैं

हालात के डर से ना दो क़दम भी चल सका

वक्त की आग मे बेख़ौफ़ ना मैं जल सका

डर से इन हादसों के हमेशा घर रहा हूँ मैं

शख्त राहों पे भी तनहा हस के मैं चलता रहा

गैर का क्या अपनों के हाथों से भी छलता रहा

हर दौर से घायल हुआ गुजर रहा हूँ मैं

परख रहा हूँ आज अपनो और गैरों को

जोर दे कर उठाता हूँ छाले पड़े इन पैरों को

सब लुटा बेगैरतों पे हाथ मल रहा हूँ मैं

मैं भी हूँ इंसान तो दिल मैं भी रखता हूँ

प्यार के काबिल हो जो दिल मैं भी रखता हूँ  

जख्म पे खा कर जख्म फिर संभल रहा हूँ मैं

ख्वाहिश तो बस एक बूंद सी अश्कों की तरह है

आंसू भरे लवरेज से पलकों की तरह है

अश्कों की तरह पलक से उतर रहा हूँ मैं

है अगर चलना ही बस रीत जिंदगी की तो

बस यही मान लडखडाते या गिरते पड़ते

जिंदगी फिर तो देख चल रहा हूँ मैं   

जितेन्द्र मणि

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