Friday, 3 August 2012


             माँ ओ माँ

जीवन के थपेडों से लड़खड़ा जाता है जब तन

थक जाता है मन तो तू याद अति है माँ

जब लहरों के झँझावात मे उलझ सा जाता हूँ

कही से भी रहत की रौशनी नहीं पाता हूँ

जब हांर हार हार जाता हूँ तो तू याद आती है माँ

जब दूर तलक दीखता है अंधेरे का डेरा

मुश्किल भरी डगर हो दीखता नहीं सवेरा

हौसले की चाह हो तो तू याद आती है माँ

जब थकान के बोझ से नींद नहीं है आती

लंबी काली रात अपनी नागिन सी लटें फैलाती

रौशनी की चाह हो तब तू याद अति है माँ

जब सफलता चूमने लगती है क़दम

विजय की अट्टालिका पे चढ़ इतराते है हम

तब स्नेह भरे स्पर्श को तू याद आती है माँ

जब लोग कहते है की खुदा नहीं होता

इश्वर का तो कोई अस्तित्व ही नहीं होता

उन्हे झुठलाना हो तो तू याद आती है माँ

जब मन खोजता है वो आँचल वो लोरी

ममता की छाँव ,स्नेह करुणा की कटोरी

जब छोना चाहूँ पाँव तो तू याद आती है माँ


जितेन्द्र मणि          

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