चलो इस हिल रही दीवार को गिरते है
हम तो इन आधियों का जोर आजमाते है
आँधियों मे ही हम चराग को जलाते है
अपनी उल्फत है इस जोर अजमाइश से
मगर चराग मे अपना लहू जलाते है
लाख मुझको मिटाना चाहा आंधियों ने मगर
इन्ही हवाओं की तपिश से ही जल जाते है
सिर्फ हंगामे सब अब बात नहीं हल होगी
चलो इस हिल रही दीवार को गिरते है
सुना है रोशनी आती है घुप्प अंधेरे पे
चलो अँधेरा थोड़ा और हम बढाते है
बड़ा कमाल महलों मे ना नीद आये उन्हे
बड़े सुकून से सड़क पे हम सो जाते है
अज़ब है दुनिया तेरी ओ मेरे परवरदिगार
कुछेक भूख से ,,कुछ खा के भी मर जाते है
जितेन्द्र मणि
अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त
दिल्ली
Touched deep inside sir...pranam
ReplyDelete