Tuesday 23 April 2013


  सदा को अपने तु ,आँचल मे छुपा माँ मेरी

 

ये कविता मैने १५ अप्रैल २०१३ को गाँधी नगर  मे हादसे का शिकार हुई गुडिया एवम उन सभी गुडियाओं के लिए लिखी है जो शायद खबरों मे आ नहीं पाती शायद उनकी पीड़ा का किसी को अहसास नहीं हो पाता और जो देश के दूरस्थ प्रदेशों से होने  के कारण वो गंभीरता नहीं पाती जो राजधानी के घटना मे उन्हे मिल पाता है  उनके मनो भावो ,उसकी पीड़ा और सवालों को अनुभूत करके  बड़े मर्माहत हो कर लिखी है ,वास्तव  मे ये कृत्य जो उस पापी ने किया है वो मानव के मानवीय पराभव बर्बरता का चरम है ,जिसे शब्दों मे व्यक्त नहीं कर सकते .ये कविता उनको समर्पित है जिस से लोग उनके पीड़ा ,दर्द ,भोलेपन मे दरिंदगी का शिकार होने की नियति को समझ सके

 

 

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

कितनी प्यारी कितनी भोली थी मैं गुडिया तेरी

ना जाने भूल क्या हुआ नहीं समझ आता

मेरा उस आदमी से क्या भला लेना देना

जाने क्या उसने मेरे साथ किया माँ मेरी 

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

तुने पाला मुझे पलकों मे जैसे आँखें होँ

तुने चाहा मुझे जीवन की जैसे सांसे हो

मगर वो लूट ही गया वो खुशी माँ मेरी 

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

मैने उसको कहा ये कर रहे हो क्या चाचा

मैं हूँ बिटिया की तरह तेरी ओ मेरे चाचा

मगर वो बन गया वहशी क्यों बता माँ मेरी

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

वो मेरे जिस्म मेरी रूह को मसल के गया

मेरे हर खाब तमन्नाओं को कुचल के गया

किस क़दर कर गया वीरान मुझे ओ माँ मेरी

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

अब मैं क्या फिर कभी हस खिलखिला भी पाऊँगी

क्या कभी अपने हसी सपने सजा पाऊँगी

क्या घाव ज़हन का भरेगा माँ मेरी

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

अजीब नज़रों से सब देखते है क्यों मुझको

बड़ी बेचारगी से देखते है क्यों मुझको

सदा को अपने तु ,आँचल मे छुपा माँ मेरी

जितेन्द्र मणि  

Monday 22 April 2013


सदा को अपने तु ,आँचल मे छुपा माँ मेरी

 

ये कविता मैने १५ अप्रैल २०१३ को गीता कॉलोनी मे हादसे का शिकार हुई गुडिया के मनो भावो ,उसकी पीड़ा और सवालों को अनुभूत करके  बड़े मर्माहत हो कर लिखी है ,वास्तव  मे ये कृत्य जो उस पापी ने किया है वो मानव के मानवीय पराभव बर्बरता का चरम है ,जिसे शब्दों मे व्यक्त नहीं कर सकते .

 

 

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

कितनी प्यारी कितनी भोली थी मैं गुडिया तेरी

ना जाने भूल क्या हुआ नहीं समझ आता

मेरा उस आदमी से क्या भला लेना देना

जाने क्या उसने मेरे साथ किया माँ मेरी 

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

तुने पाला मुझे पलकों मे जैसे आँखें होँ

तुने चाहा मुझे जीवन की जैसे सांसे हो

मगर वो लूट ही गया वो खुशी माँ मेरी 

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

मैने उसको कहा ये कर रहे हो क्या चाचा

मैं हूँ बिटिया की तरह तेरी ओ मेरे चाचा

मगर वो बन गया वहशी क्यों बता माँ मेरी

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

वो मेरे जिस्म मेरी रूह को मसल के गया

मेरे हर खाब तमन्नाओं को कुचल के गया

किस क़दर कर गया वीरान मुझे ओ माँ मेरी

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

अब मैं क्या फिर कभी हस खिलखिला भी पाऊँगी

क्या कभी अपने हसी सपने सजा पाऊँगी

क्या घाव ज़हन का भरेगा माँ मेरी

मैने था क्या किया गुनाह बता माँ मेरी

अजीब नज़रों से सब देखते है क्यों मुझको

बड़ी बेचारगी से देखते है क्यों मुझको

सदा को अपने तु ,आँचल मे छुपा माँ मेरी

जितेन्द्र मणि  

 

Wednesday 17 April 2013


हज़ार कांधे ज़नाजे पर  तेरे आयेंगे    

 

डर के साये मे नजाने जी रहे है क्यों भला

इतनी आसानी से ये मौत भी ना पाएंगे

आप नाहक ही परेशान मौत से अपनी

ऐसे क्या जिंदगी भी खाक ही जी पाएंगे

रोज डरते है की मर जाय ना कही अब हम

आप जिन्दा ही कहा है की जो मर जायेंगे

गुजर गये भी तो ना कारवां होगा कोई

ना ही दिलदार दिल से कंधा ही लगाएंगे

जो चले मौत की आँखों मे भी आंखे  डाले

हज़ार कांधे ज़नाजे पर  तेरे आयेंगे    

 

जितेन्द्र मणि

     

ऐसा रौशन सा आफताब भी बनता ये मणि

 

ये दिल का रिश्ता है ना दाम लगाओ इसका

किसी भी नूर से है कीमती रिश्ता ये मणि

हो मुझको गम भला क्यों दूरियों का ओ हमदम

जो मेरे दिल बसी रहती है हरदम ये मणि   

अरे क्या कोहकाफ़ वालों, को भी है नसीब

जो पाक ओ साफ़ सा दामन मेरा अपना ये मणि

जहाँ हो बंदिशे मजबूरियां वो  इश्क नहीं

हर एक सेहरा समंदर को लांघता ये मणि  

जमाल ए इश्क हो कमाल बाबुलंद इतना

जमी पे पाँव रख,सर से फलक छूता ये मणि  

रौनक ए इश्क कर दे सितारों को फीकी

ऐसा रौशन सा आफताब भी बनता ये मणि

 

जितेन्द्र मणि   

     

            आइना

जब तलक थे हम जवान सचाई दिखलाता था ये

उम्र क्या गुजरी हुआ कितना ये झूठा आइना

 

आइना को साफ़ कर खुद को जवां दिखलाऊँ मैं  

जुस्तजू मे कर रहा था साफ़ टूटा आइना

 

वक्त जब दीदार का आया ये रूठा मुझसे क्यों

पहले थे रूठे हमीं अब हम से रूठा आइना

 

एक भरम के आसरे थी कट रही ये जिन्दगी

हम जवाँ सफ्फाक़ है ,गन्दा है फूटा आइना  

 

सच के आगे झूठ तो मेरा ये बेपर्दा हुआ

टूटा अब मेरा गुरूर , जो आज छूटा आइना

 

जितेन्द्र मणि  

     

भुलाया नहीं जाता

जो शख्स मुहब्बत की

इबारत की तरह है

जो काबा है चिश्ती है

जो हज़रत की तरह है 

उस से निगाह भी तो

चुराया नहीं जाता

ये दिल फ़ना कर कुछ

भी बचाया नहीं जाता

आँखों मे बसे औलिया

का नूर ए बेशुमार

तुझको बहुत चाहा है

भुलाया नहीं जाता

 

जितेन्द्र मणि   

Friday 12 April 2013


मुझको है उस से प्यार ,प्यार नहीं मंजिल से

 

खुदा करे की सारी

उम्र ना मिले मंजिल

दौर ए तूफ़ान रहे

हमको ना मिले साहिल

उसने मंजिल तलक ही साथ

का वादा है किया

अपना ये हाथ बस मक़ाम

तक ही उसने दिया

साथ चलने को वो राज़ी

हुआ है मुश्किल से

मुझको है उस से प्यार

प्यार नहीं मंजिल से

जितेन्द्र मणि

Thursday 11 April 2013


      ज़माने के लिए

ये संग दिलों का शहर है 

चलना सम्हल के तुम

यहाँ पलकों पे बिठाते

है गिरने हे लिए

यहाँ कुछ रिश्ते जी रहे

 है लोग दुनिया मे

चाहिए उनको भी कुछ

लोग दिखाने के लिए

बिना जज़्बात वो निभा

रहे है रिश्तों को

उनको चाहिए ये रिश्ते

सिर्फ जमाने के लिए

जितेन्द्र मणि