Friday 31 August 2012


चांदनी रात मे दो चाँद के दीदार ना हो

 

सुनों भवरों मेरी गुजारिश तुम कबूल करो

तुम मेरे चाँद के आगे नकाब बन के चलो

आज की रात मेरा  चाँद आ रहा मिलने

इतना सफाक़ उजला चाँद देखा है किसने

चाँद फलक मे भी ,है चाँद जमी पर भी यहाँ

वहाँ  है दाग लिए चाँद ,है चाँद बेदाग यहाँ

फलक का चाँद कही खुद से शर्मसार ना हो

चांदनी रात मे दो चाँद के दीदार ना हो

जितेन्द्र मणि  

    प्यार की रस्म

वो पूछने लगे मेरे दिल के धडकने का सबब

ना तेरा नाम बताने को थे तैयार ये लव

सुर्ख आँखों से बहुत कुछ तो हो रहा था बयां

मेरे  चेहरे पे थे बाकी अभी भी  उसके निशाँ

ना वो रुसवा हो कभी,जाये जाँ ना खुले ये लव

निभाऊँ प्यार को बस इतनी इल्तेजा है या रब

जितेन्द्र मणि        

Thursday 30 August 2012


मेरा खुदा मेरा कातिल निकला

 

वो प्यार मेरा संग दिल निकला

वो नहीं प्यार हे काबिल निकला

नहीं शिकवा मुझे है गैरों से

अपना ही जब नहीं अपना निकला

नहीं हैरत कोई है मुझको दोस्त

मेरा खुदा मेरा कातिल निकला
जितेन्द्र मणि          

Wednesday 29 August 2012


       दुआ

मेरी एक दुआ तो क़ुबूल कर,मेरा हमसफ़र वो बने कभी

मेरे  खुदा मेरी भी तो एक, बार तू सुन ले कभी 

मेरी राह को तु सवांर दे मेरे कसरतो के फूल से

बड़े दिल से की है ये दुआ कर ले दुआ तु कबूल ये

मेरा जन्नतो सा हो सफर,चाहे आगे कोई सफर ना हो

मेरी इस दुआ के बाद चाहे किसी दुआ का असर ना हो
जितेन्द्र मणि    

अब किसी और लौ से शमा लौ लगाएंगे हम

ऐ शमा इस क़दर तूने है जलाया है हमको
 

मेरी दीवानगी का इम्तेहान लेती हो
 

प्यार की इक हँसी निगाह डालने के लिए
 

मेरा वजूद ही हस हस के जला देती हो
 

प्यार की रीत है खुद को मिटा देना हँस के
 

मगर तुम ताप से कितनो को जला देती हो
 

हम तो पाकीज़गी से प्यार निभाते अपना
 

तुम अकेले कितने परवानों को जला देती तो
 

ये जलन किस क़दर होती है हम परवानों को
 

इसकी थोड़ा मजा अब तुझको भी चखाएंगे हम
 
अरे शमा अब तो तुझको थोड़ा जलाएंगे हम
 
अब किसी और लौ से शमा लौ लगाएंगे हम

 

जितेन्द्र मणि          

Tuesday 28 August 2012


मेरे दर पे तो हर एक पाक रूह को आना है

शरीक ए दर्द है दोनों के दिल मगर फिर भी

जो फर्क दोनों मे है वो तुम्हे बताना है

तु बेवफा है तेरा दर्द भी  कितना तनहा

मेरी गमी मे है शामिल तु देख सारा जहाँ

तेरा ये दर्द है सन्नाटे से लिपटा लेकिन  

दर्द मे मेरे देख तु गम ए जमाना है

तेरी खुशी की चांदनी मे फक़त चंद लोग

मौका परस्त लोग वे मौसम परस्त लोग

पैर गौर से तु देख ले गमी को मेरी

मेरा रुतबा तु देख देख ले जमी को मेरी

शरीक मेरी गमी मे तो ये ज़माना है

मेरी पाकीज़गी दौलत है उमर भर की मेरी

मुझमे आयी नही थोड़ी भी बेवफाई तेरी

मेरे दर पे तो हर एक पाक रूह को आना है

     जितेन्द्र मणि  

 

Monday 27 August 2012


जिंदगी फिर तो देख चल रहा हूँ मैं

   

जिन्दगी की हकीकत से बेखबर रहा हूँ मैं

मंजिल की आरज़ू में दर बदर रहा हूँ मैं

जाने किस मोड़ पर ये मुझ पे मेहरबान हो

चल रहे है जब तलक साँसों का कारवां हो

न हुई तु मेरी पर तेरा हमसफ़र रह हूँ मैं

अजीब है ये खेल हाथ के लकीरों का

मगर बिगाड़ ये पाएंगे क्या फकीरों का

आइने की तरह से टूट के बिखर रहा हूँ मैं

हालात के डर से ना दो क़दम भी चल सका

वक्त की आग मे बेख़ौफ़ ना मैं जल सका

डर से इन हादसों के हमेशा घर रहा हूँ मैं

शख्त राहों पे भी तनहा हस के मैं चलता रहा

गैर का क्या अपनों के हाथों से भी छलता रहा

हर दौर से घायल हुआ गुजर रहा हूँ मैं

परख रहा हूँ आज अपनो और गैरों को

जोर दे कर उठाता हूँ छाले पड़े इन पैरों को

सब लुटा बेगैरतों पे हाथ मल रहा हूँ मैं

मैं भी हूँ इंसान तो दिल मैं भी रखता हूँ

प्यार के काबिल हो जो दिल मैं भी रखता हूँ  

जख्म पे खा कर जख्म फिर संभल रहा हूँ मैं

ख्वाहिश तो बस एक बूंद सी अश्कों की तरह है

आंसू भरे लवरेज से पलकों की तरह है

अश्कों की तरह पलक से उतर रहा हूँ मैं

है अगर चलना ही बस रीत जिंदगी की तो

बस यही मान लडखडाते या गिरते पड़ते

जिंदगी फिर तो देख चल रहा हूँ मैं   

जितेन्द्र मणि

मेरे दर्द मे रोये दीवारों दर ये रात भर

 

कल रात दर्द मुझको बहुत सताने लगा

इस दर्द मे ही आधी रात तलक मैं जगा

वो स्याह रात को लगा बनाने और स्याह

इस से न बचने की नज़र आती थी कोई राह

फिर दर्द की पूरी सियाही ही उड़ेल दी

इन खिड़कियों दीवार ओ दर पे भी उड़ेल दी

फिर चैन से मैं सो सका था रात मे मगर

मेरे दर्द मे रोये दीवारों दर ये रात भर

जितेन्द्र मणि   

Sunday 26 August 2012


            प्यार

ये जो रिश्तों का जहाँ है बड़ा अजब प्यारों

इसे समझना है बड़ा कठिन गज़ब प्यारों

कोई है इस कदर अजीज़ अपने दिल को तो

हम उसके वास्ते जाँ तक निसार कर देंगे

किसी की एक हंसी एक मुस्कराहट को

अपना हर खाब आरजू निसार कर देंगे

कोई अपने से भी प्यारा भी है अज़ीज़ भी है

दिल है कायल उसी का उसी का मुरीद भी है

उसके चाहत मे कितना अरसा यू गुजारा है

उसको नज़रों के ज़रिये रूह मे उतारा है

उसकी खातिर ही सब निसार करेंगे यारों

इस तरह जाँ ए जाँ से प्यार करेंगे यारों

जितेन्द्र मणि    
                       हुनर 

बिन तेरे खुद को एक अरसा भरम मे रखा है
अब खुदा खुद को ज्यादा छला भी नहीं जाता

बड़ा लंबा सफ़र तय किया इस तन्हाई में
मणि अब और मुझसे तो  चला नहीं जाता

किसी की है अमानत दिल ये मेरे पास मणि
ले के उनकी अमानत चिता मे जला नहीं जाता

दिल का ये दर्द भी अजीब मर्ज़ होता मणि
जान रहते ये दर्द छोड़ कर नहीं जाता

मैने  कोशिश तमाम उम्र ही कर ली है मणि
बड़ा जिद्दी है एक बार भी नहीं आता

वैसे तो सभी ग़ज़ल और शेर लिखते है
कोई यू ही   किसी की नज़म को नहीं गाता

जो मिला मुझसे वो तो हो के रह गया मेरा
मणि सभी को तो ऐसा हुनर नहीं आता

जीतेन्द्र मणि        

Thursday 23 August 2012


  ताज महल

वफ़ा फितरत थी मेरी

मैने बस वफायें दी

वो बेवफा थी उसने

संग मेरे ज़फाये की

दिल दिया जान भी

लुटा दी है प्यार मे मैने

उसने मेरे प्यार को

जाने क्यों बद्दुआयें दी

क्या सिर्फ ताज ही

मिसाल ए मुहब्बत यारों

गरीब का भी दिल तो

धड़क सकता है यारों

क्या प्यार है फरेब

जो ना बना पाए ताज

कोई मुझको भी जरा

ये तो बताएगा आज

निशानी है अमीरी की या

मिसाल ए वफ़ा है ये ताज

जितेन्द्र मणि

        हुनर

अरे गुलाब ये हुनर मुझे सिखायेगा

खार के बीच मे किस्त तु मुस्कुराएगा

बीच काँटों के भी हो कर के तु पैदा गुलाब

इतना नाजुक सा खड़ा कैसे खिल्खिलायेगा

कड़ी चुभन के सेज पर भी लेट कर गुलाब

फिजा मे खुशबु का झोंका ही तु फैलाएगा

लाख टुकड़े भी करे लोग तेरी टहनी के

जहाँ भी पायेगा मौका वही उग जायेगा

भूल के रंज ओ गम पंखुर नए पत्ती ले कर

नए जज्बे से कैसे फिर से पनप जाएगा

जितेन्द्र मणि        

Tuesday 21 August 2012


मित्रों ये कवि़ता  मैने सुनामी त्रासदी के दौरान अंडमान मे अपनी पदस्थापना के दौरान तबाही का मंज़र देख के लिखी थी तथा वहा हट बे द्वीप मे राहत कार्य भी किया जिस हेतु मुझे अंडमान के माननीय उप राज्यपाल द्वारा प्रशस्तिपत्र भी प्राप्त हुआ

२६ दिसम्बर २००४ सुनामी की विनाश लीला

हो रहा इस बार फिर से आगमन नव वर्ष का

पर नहीं दिखता कही मंजर मुझे तो हर्ष का

है नहीं वो गात पुलकित ,ठहाके न लग रहे

हर गली कूचा है वीरान गाँव सब सूने पड़े

जल जो जीवन है बना कातिल भी हत्यारा यहाँ

एक पला मे लुट गया कितनो का देखो आशियाँ

चंद मिनटों मे उठी लहरे बड़े उद्वेग से

गर्जना करती भयावह बढ़ रही थी वेग से

प्रथम कुछ क्षण को हुआ संकुचित सागर यहाँ

विकट तांडव था वो करने जा रहा इस दरमयान

फिर उठी विषधर तरंगे दंश देने को यहाँ

मनुज पशु पल्लव संग तरु हो गये सब बियावान

आठ मीटर की तरंगे चली फिर तो कपकपाती

पेड़,घर,पशु मनुज सबको काल के मुख मे समाती

बह रहे सब विवश को जाने कहा किस ओर को

वो विधाता भी नहीं था रोक पाया जोर को

बह गयी वो प्रगति ,था विज्ञान का ऐसा पराभव

तबाही की  धरा पर थी कर रही ये प्रकृति तांडव

कर रही है अट्टहास वो दंभ पर विज्ञान के

हँस रही विद्रूपता पे आज वो इंसान के  

थमा जब तांडव ये दिख रहे शव क्षत विक्षत से

जो बचे थे कापते थे निरंतर हिलती धरा से

लुट गया सब कुछ मगर हिम्मत नहीं वो लूट पाई

आपदा भी हिम्मते मर्दा से तो ना जीत पायी

फिर श्रृजन के भाव मन मे ले खड़ा वो हो गया  

आज हिम्मत से हिमाला से बड़ा वो हो गया

जितेन्द्र मणि