Tuesday 31 July 2012


मंदिरों मस्जिदों मे कम ही क़दम रखता हूँ

दिल तो कर ही दिया निसार मैने उल्फत में

दोस्तों के लिए जाँ दूँ वो  जिगर रखता हूँ

मेरे तो दुश्मनों से भी है रश्क दुनिया को

दोस्त अपने बहुत चुन के अज़ीज़ रखता हूँ

कर सकूँ अपने दोस्तों से दोस्ती पूरी

इतनी तो हैसियत ऐ दोस्त मैं  भी रखता हूँ

काम हर बेबसी के मारों के मैं आ पाऊँ

खुदा इतना रसूख़ दे ये दुआ रखता हूँ

खुश रहे सब इसी मे खुशियां है मेरी या खुदा

सबकी हो खैर यही इल्तेज़ा मैं रखता हूँ

मणि अलफ़ाज़ मेरा दिल का ये मुजस्सिम है

इस  भरी दुनिया मे मैं पाक़ जिगर रखता हूँ

जब से खुद मे खुदा को देखा हो खुदी से जुदा

मस्जिदों  मंदिरों मे कम ही क़दम रखता हूँ

जितेन्द्र मणि   

Monday 30 July 2012


           सस्ता और महंगा

ये महगाई ही है क्या जो, फक़त सिक्को की खातिर अब

कर रहा किस तरह इंसान देखो खून रिश्तों का

जहा मे बिक रहा ईमान लेकिन कितना तो सस्ता

अरे इंसान क्या अब तो भरोसा ना फरिश्तों का

हो कहते आप की देखो बड़ी महगी हुई दुनिया

अरे दो वक्त की रोटी मे माता बेचती “मुनिया “

अरे अब बिक रहे इंसान कितने सस्ते मे देखो

और इंसानियत तो बिक रही न मुफ्त मे देखो

ये सस्ता है या महगा नहीं कहना काम बच्चों का

माँ अस्मत बेंच कर भर पा रही न पेट बच्चों का

जितेन्द्र मणि



चीख के रो पड़ा है सन्नाटा

दिया खुदा का हर एक जख्म उसने हंस के लिया

अपने ने गैरो ने सबने उसे जख्म ही दिया

दर्द  का दर्द बड़े जतन से उसने था पिया

दर्द से उसका बड़ा नाता साथ उसने दिया

चीख़ कर रो पड़ा है सन्नाटा आज फिर से

दर्द ए सैलाब मे जो उफ़ तलक न उसने कहा

खुदा भी आजमा के देख लो अब हार गया

पीर ए पर्वत से कभी एक भी आंसू न बहा

जितेन्द्र मणि  

          लाचारी

हम इतनी दूर क्यों हो जाते है यूँ अपनों से

उनसे मिलने की बात लगती है तब सपनो सी

क्या एक सीमा देश की है इतनी गहरी हुई

क्या अपनी आत्मा लाचार गूंगी बाहरी हुई

हम है ब्राह्मण वो मुसलमान कैसा भेद है ये  

ये है भारत वो पाकिस्तान कैसा भेद है

चलो बट भी गये तो क्या ना कोई रिश्ता है

भावना भाव का जीवन का नहीं रिश्ता है

अरे इंसानियत से भी बड़ा धरम है कोइ

अरे बंद ए खुदा तुझमे भी शरम है कोई

रास्ते  हो भी अलग  मंजिले तो एक ही है

सभी मजहब है पाक़ भाव उनके नेक  ही है

तो फिर फसाद ये दंगे भला क्यों करते हो

हो अपने मुल्क मे फिर खौफ से क्यों रहते हो

कितना अच्छा हो अगर दंगे कभी हो जाए

रहीम काशी के घर ,काशी रहीम घर जाए

इस से एक दूसरे को हम तो बचा पाएंगे

बचेगा कोई नहीं अपने घर जो जायेंगे

बचेगा कोई नहीं अपने घर जो जायेंगे   

जितेन्द्र मणि     

              प्यार का मन्त्र
है बड़ा लालची आदत तू ले सुधार मणि
अगर तू चाहता पाना है सच्चा प्यार मणि
यहाँ समझ ले बस लुटना लुटाना होता  है
यहाँ बनियागिरी न चलेगी उधार मणि जितेन्द्र मणि


Friday 27 July 2012


         तू है काफिर

मेरी तस्वीर के टुकडे हज़ार कर लेकिन

मेरी दिल के तो यू टुकड़े ओ मेरे यार न कर

जो मेरे संग भी निभा ना सका प्यार तो फिर

ये इल्तेज़ा है किसी और से भी प्यार न कर

तूने मुझसे कराया कितना इन्तेज़ार अपना

नहीं लौटूंगा अब तू मेरा इन्तेज़ार न कर

ज़माना बीता है इज़हार ए प्यार करने मे

न किया अब तलक तो अब तू ये इज़हार न कर

खुदा मे भी तो मोहब्बत का नूर दिखता है

तू है काफ़िर खुदा का अब तो तू दीदार न कर

जितेन्द्र मणि        

बसते खुदा यहीं

तुम तोडते दिलों को ,मंदिरों के वास्ते

उजाडते हो बस्तियां मस्जिद के वास्ते

क्या सोंचा है कभी सभी मजहब तो एक है

है रास्ते अलग मगर मंजिल तो एक है

आंसू मे भिगो कर अगर कुरान लिखोगे

तुम दर्द को निचोड़ के पुराण लिखोगे

कुछ भी नहीं हासिल तुम्हे मजहब के रार मे

बंदे खुदा बदते है देख सिर्फ प्यार मे

इश्वर खुदा खुश होगा क्या बहा के कोई खून

ये मशवरा माँनो मेरा तुम छोड़ दो जूनून

मंदिर गिराओ मस्जिदों को तोड़ दो सभी

ना तोडो दिल इंसान का बसते खुदा  यहीं

जितेन्द्र मणि     

    इश्क की राह

ये राह ए इश्क है चलना

यहाँ दुश्वार कितना है

गुलों की चाह  मे या रब

यहाँ पे खार कितना है

यहाँ पर मज़िलो की जुस्तजू

करता है हर कोई

ये आंखे हुस्न  के दीदार

को अरसा नही सोई   

जिस्म इस राह पर चोटिल

हुआ बेज़ार कितना है  

गुलों --------------या रब

यहाँ ------------कितना है  

है आशिक चलता अंगारों

पे अपना प्यार पाने को

वो हर सुर भूल कर गाता

मुहब्बत के तराने को

हर एक कतरा लहू कर

दे निसार ,प्यार कितना है

गुलो की चाह मे या रब

यहा पर  खार कितना है  
जितेन्द्र मणि   

     माँ की याद मे

आज दिल खोल करके रोऊँगा

अब नहीं माँ जो चुप कराएगी

वो नहीं है जो प्यार से मुझको

वो मधुर लोरियाँ  सुनाएगी

भर के ममता से अब नहीं माता

हाथ सर पर मेरे फिराएगी

अब नहीं है जो लाख  गलती हो

मुझको पापा से वो बचायेगी

कितने करके जतन नहीं अब वो

निवाला मुझको अब खिलाएगी

छोड़ कर क्यों गये ओ माँ मेरी

मुझको ऐसे तू क्यों रुलाएगी

क्या नहीं सोंचा ये कभी तूने

याद कितना मुझे तू आयेगी

जितेन्द्र मणि

आपस के भेदभाव सभी भूल जाय हम

आपस के भेदभाव सभी भूल जाय हम

फूलों की तरह फिजा मे खुशबू फैलाये हम  

अल्लाह ने सब कुछ दिया हमको बहुत मगर

दिल मे भरा हामी ने तो वो मजहबी ज़हर

मुल्को को सरहदों को दिलों को भी लिया बाँट

हम बंट गये घर बंट गये बंट ही गये जज्बात

छोड़ो पुराना राग नया गीत सुनाओ

अब हाथ के संग ही में अपना दिल भी मिलाओ  

रुक जायेंगी बस आप ही नफरत की आंधियाँ

हर दिल मे तुम शमा ए मुहब्बत तो जलाओ

अब खुद को मिटा के ही बस मिटेगा अँधेरा

खुद के लहू से शामाँ  ए अमन तो जलाओ   

जितेन्द्र मणि        




Thursday 26 July 2012


      माँ ओ माँ

 माँ तेरे हाथ में वो जादू है

मेरे हर दर्द को फ़ना कर दे

खुदा भी पूरी करता है वो दुआ

जो  उठा हाथ माँ दुआ कर दे   

तेरा ये जलवा खुदा के जैसा है

तुझमे देखा की खुदा कैसा है

मेरी झोली है खाली माँ मेरी

दुआओं से मेरी झोली भर दे

तुने जीना मुझे सिखाया है

हर  बुरी नज़र से बचाया है

कितनी ही बार अपने आँचल मे

मेरी माँ तुने तो सुलाया है

नहीं है कोई काम कोई दुनिया मे

जो दूध माँ तेरा अदा कर दे

जितेन्द्र मणि

Wednesday 25 July 2012


          अन्ना हजारे को समर्पित

मुझको एक बात बाबा आपको बतानी है

बात गहरी है दिल मे सीधे उतर जानी है

आग से खेलना आसान नहीं है बाबा

सम्हलना आग से ये उंगलियाँ जल जानी है

आज के दौर मे सत्य और अहिंसा का सवाल

दौर बदला हुआ खादी हुई बेमानी है

जजीरा हो के संमन्दर से अदावत न करें  

आप है टापू ,मगर चारो ओर पानी है

कौन है चाहता ईमान से जो काम करे

सभी करते है अपनी ही मनमानी है

कुछ तो है बात इस फिराक ,बद्र में जो “मणि”

आज तक दुनिया उनके नगमे की दीवानी है      


Tuesday 24 July 2012


            लंगर की तरह

अजाब माहौल है गुमसुम यहाँ सब बैठे है

लग रहा है ये समां मौत के मंजर की तरह

आज हर  बात सच की दफ़न कर दी जाती है

चुभता है सच उन्हे दिल मे एक खंज़र की तरह

लाख कोशिश करो पैदा न यहाँ कुछ होगा

ये जमी हो गये बेकार सी बंज़र की तरह

बस वही लोब बचा सकते है इस कश्ती को

डूब सकते हो जो मजधार मे लंगर की तरह

वो कितने दर्द के दरिया को भी पी सकता है  

उसकी ताक़त है “मणि “ गहरे समंदर की तरह  

जितेन्द्र मणि

              दर्द का समंदर

दर्द का एक समंदर है वो समेटे हुए

अपनी तन्हाई मे खुद को है वो लपेटे हुए

ना छेड उसको न तू उसकी अजमाइश कर

 पी गया दर्द का दरिया ही वो हँसते हँसते

न उसके घाव की ऐसे तो तू नुमाइश कर

न उसके जखम को कुरेद दर्द दे के नया

न उसके दर्द की प्यारे यहाँ पैमाइश कर

अगर तू करना ही कुछ चाहता है तो सुन ले

भला उसका हो खुदा से यही फरमाइश कर

जितेन्द्र मणि